वास्तु का प्रभाव हम पर कैसे पड़ता है जब से यह सृष्टि बनी है, तब से सुख-दुख भी मानव जीवन के साथ लगा हुआ है। सुख की हर कोई आशा करता है, लेकिन दुख से हर कोई पीछा छुड़ाना चाहता है। क्योंकि दुख-कष्ट, क्लेश, रोग एवं समस्याओं का दूसरा नाम है। न चाहते हुए भी प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में कठिनाइयों के चक्र आते रहते हैं। मैंने जब इसका विश्लेषण किया, तो पाया कि वास्तु के उपयोग से जीवनशैली में परिवर्तन आ जाता है और जीवन अनेक शक्तियों से प्रभावित होता है। इसमें वास्तु एक महत्वपूर्ण शक्ति है। वास्तु विषय पांच तत्त्वों पर आधारित है। यह पांच तत्त्व हैं-जल-अग्नि-वायु-पृथ्वी-आकाश है। यदि प्रत्येक तत्त्व अपनी उचित स्थान पर स्थापित हो जाये तो मानव जीवन की परेशानियों का चक्र स्वत: ही समाप्त हो जाता है। वास्तु विषय का परम उद्देश्य प्रसन्नता एवं समृद्धिदायक मकान का निर्माण करना है। वास्तु विषय में भूगर्भीय ऊर्जा, चुंबकीय शक्ति, गुरुत्वाकर्षण बल, अंतरिक्ष से आने वाली किरणें, सूर्य रश्मियां, प्राकृतिक ऊर्जा इत्यादि का मानव जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन करके विभिन्न सिद्धांतों को प्रतिपादित किया गया है। वास्तु विज्ञान किसी भवन को निर्माण करने का एक सशक्त वैज्ञानिक दृष्टिकोण है। यह समस्त विश्व वास्तु के पंच तत्त्वों से निर्मित है। वास्तु विषय के आधार पर यह पंचतत्व(जल-अग्नि-वायु-पृथ्वी-आकाश) मानव जीवन को प्रभावित करते हैं। अन्य ग्रहों की अपेक्षा पृथ्वी पर इन पंचतत्त्वों का प्रभाव अधिक दृष्टिगोचर होता है। ये तत्त्व प्रकृति में संतुलन बनाये रखते हैं। भवन निर्माण के लिये भूमि के आकार के साथ, दिशाओं के अनुसार, वास्तु के पंच-तत्वों का उचित अनुपात अत्यावश्यक होता है। हमारे आसपास के वातावरण में व्याप्त ऊर्जा शक्तियों में कई तरह की अनिष्ट ऊर्जा शक्तियां भी विद्यमान रहती हैं। इन अनिष्ट शक्तियों से बचने के लिये वास्तु विषय के पंच तत्त्वों के उचित संतुलन की आवश्यकता पूर्ति हेतु, वास्तु शास्त्र पंच तत्त्वों के आधार पर दिशाओं के अनुसार सही निर्देश देता है। भारत में प्राचीन काल से ही वास्तु शास्त्र को पर्याप्त मान्यता दी जाती रही है। अनेक प्राचीन इमारतें वास्तु के अनुरूप निर्मित होने के कारण ही आज तक अस्तित्व में है। वास्तु के सिद्धांत पूर्ण रूप से वैज्ञानिक हैं, क्योंकि इस शास्त्र में हमें प्राप्त होने वाली सकारात्मक ऊर्जा शक्तियों का समायोजन पूर्ण रूप से वैज्ञानिक ढंग से करना बताया गया है। वास्तु के सिद्धांतों का अनुपालन करके बनाए गए गृह में रहने वाले प्राणी सुख, शांति, स्वास्थ्य, समृद्धि इत्यादि प्राप्त करते हैं। जबकि वास्तु के सिद्धांतों के विपरीत बनाये गए गृह में रहने वाले समय-असमय प्रतिकूलता का अनुभव करते हैं एवं कष्टपद जीवन व्यतीत करते हैं। कई व्यक्तियों के मन में यह शंका होती है कि वास्तु शास्त्र का अधिकतम उपयोग आर्थिक दृष्टि से संपन्न वर्ग ही करते हैं। मध्यम वर्ग के लिए इस विषय का उपयोग कम होता है। निस्संदेह यह धारणा गलत है। वास्तु विषय किसी वर्ग या जाति विशेष के लिये ही नहीं है, बल्कि वास्तु शास्त्र संपूर्ण मानव जाति के लिये प्रकृति की ऊर्जा शक्तियों को दिलाने का ईश्वर प्रदत्त एक अनुपम वरदान है। जिस प्रकार सूर्य की किरणें धनवान्-निर्धन एवं किसी जाति विशेष का भेदभाव किए बिना सभी को समान रूप से प्रभावित करती है, उसी प्रकार वास्तु के पंच तत्त्वों का उचित संतुलन सभी को बिना किसी भेदभाव के समान रूप से प्रभावित करता है। यह व्यक्ति की स्वयं की इच्छा शक्ति एवं योग्यता पर निर्भर करता है कि वास्तु शास्त्र के इस अनमोल कोश से वह कितना ज्ञान ग्रहण करके उसका व्यवहारिक उपयोग निज जीवन में करके लाभान्वित हो सकता है। अनुभवहीन और कुकरमुत्ते की तरह उगे हुए वास्तु विशेषज्ञों की अज्ञानता के कारण ही साधारण व्यक्ति वास्तु शास्त्र के प्रति भ्रमित रहता है। जिसके कारण वास्तु विषय की महत्ता कम होती है और जनसाधारण का इस विषय के प्रति दृष्टिकोण नकारात्मक हो जाता है। ऐसे अज्ञानियों के चक्कर में पड़कर अपना अमूल्य समय और धन व्यर्थ न करें। क्योंकि एक कुशल एवं अनुभवी वास्तु विशेषज्ञ के परामर्श शुल्क की तुलना में उसके उचित परामर्श से मिलने वाले लाभ बहुत अधिक होते हैं। प्रकृति की ऊर्जा शक्तियों के संतुलित उपयोग से जीवन को प्रसन्न और समृद्धिदायक कैसे बनायें? इसका व्यवस्थित अध्ययन और व्यावहारिक उपयोग करना ही वास्तु विज्ञान है। आज का सामान्य व्यक्ति अति व्यस्त है। दूषित वातावरण एवं समस्याओं ने उसका जीवन अंधकारमय, उदास एवं पीड़ित बना दिया है। मानव भले ही महान मेधावी क्यों न हो। प्रकृति पर विजय पाने की आकांक्षा को लेकर कितना ही प्रयत्न करे। उसे प्रकृति की शक्तियों के समक्ष नतमस्तक होना ही पड़ेगा। प्रकृति पर विजय पाने की कामना को छोड़कर उसके रहस्यों को आत्मसात् करके, उसके नियमों का अनुसरण करे तो प्रकृति की ऊर्जा शक्तियां स्वयं ही मानव समुदाय के लिये वरदान सिद्ध होंगी। पंच-तत्त्वों पर आधारित वास्तु से मानव सिद्धि प्राप्त करता है तो वह उसे सुख-शांति और समृद्धि प्रदान करती हैं। वास्तु विषय का महत्त्व बढ़ने के साथ-साथ केवल पुस्तकीय ज्ञान के आधार पर इस विषय में इतने अपरिपक्व एवं अज्ञानी लोग प्रवेश कर चुके हैं कि जनसाधारण के लिये उचित-अनुचित का निर्णय कर पाना कठिन हो जाता है। बाजार में वास्तुशास्त्र से संबंधित मिलने वाली लगभग सभी पुस्तकों में एक ही तरह की बातें लिखी रहती हैं। इसका अर्थ यह है कि ये पुस्तकें लेखक की मौलिक रचना नहीं है और ना ही स्वयं शोध या अनुसंधान करके लिखी गयी हैं। अपितु शास्त्रों में लिखी गयी बातों को अपनी भाषा में पिरो दिया जाता है या फिर अन्य पुस्तकों की नकल, जिन्हें पढ़कर जनसाधारण व्यक्ति वास्तु-विषय के प्रति भ्रमित ही रहता है। जब कई गृहों का अवलोकन किया जाता है, तब हम यह देखते हैं कि प्रत्येक गृह का आकार एवं दिशाएं अलग-अलग होती हैं। जबकि पुस्तकों में लगभग एक ही तरह के सिद्धांतों का उल्लेख किया गया है। आप स्वयं चिंतन कर सकते हैं कि जब अलग-अलग गृह की दिशाएं भिन्न-भिन्न रहती है, तब अलग-अलग गृह में वास्तु के सिद्धांत भी पृथक लागू होंगे। इस स्थिति में पुस्तकों में दिये गये सिद्धांत कौन से गृह पर लागू होंगे? या फिर पुस्तकों में दिये गये वास्तु सिद्धांत कौन से गृह को आधार बनाकर लिखे गये हैं ? कहना कठिन है। पुस्तकें हमारे लिये ज्ञानवर्धक हो सकती हैं, लेकिन पुस्तकीय ज्ञान और व्यावहारिकता में बहुत अंतर होता है। वास्तु शास्त्र हजारों वर्ष पहले उस समय की आवश्यकता के अनुसार रचा गया था। समय परिवर्तन के साथ आवश्यकता के अनुसार उचित संशोधन भी आवश्यक होता है। वास्तु शास्त्र और वास्तु विज्ञान में मुख्य अंतर यह है कि शास्त्र हम पर शासन करता है, लेकिन विज्ञान हमें आवास संबंधी ज्ञान के बारे में नई जानकारियों से परिचित कराता है। जब किसी कार्य-पद्धति के विशिष्ट ज्ञान के कारण का संबंध स्थापित हो जाये और बार-बार अनुसंधान करने पर ठोस परिणाम आने लगते हैं। तब यह कार्य पद्धति स्वत: ही वैज्ञानिक बन जाती है। कई ज्योतिष जो वास्तु के बढ़ते महत्त्व के कारण मात्र पुस्तकीय ज्ञान के आधार पर वास्तु विशेषज्ञ बन चुके हैं। ये समस्याग्रस्त इंसान को वास्तु दोष निवारण के नाम पर पूजा-पाठ, यंत्र-मंत्र, टोटके इत्यादि में उलझा देते हैं। जबकि समस्याओं का समाधान एवं सुख-समृद्धि प्राप्त करने के लिये वास्तु विषय को अन्य किसी भी विषय के माध्यम की आवश्यकता ही नहीं पड़ती है। भारत में पुरातन काल से आध्यात्मिक प्रभाव अधिक रहने से जनसामान्य पूजा-पाठ में अधिक रुचि लेता है। जबकि पूजा-पाठ करना आपकी धार्मिक भावना एवं आस्था का प्रतीक है। अपने इष्टदेव के पति श्रद्धा रखना, आपके ध्यान लगाने का माध्यम हो सकता है। ग्रह दोष निवारण एवं कार्य सिद्धि के लिये पंडित से पूजा पाठ करवाने से अपना कोई हल नहीं निकल पाता। जब हम रोगी होंगे और औषधि कोई दूसरा खाएगा, तो हमें उसका प्रभाव कैसे पाप्त हो सकता है ? यह तर्कहीन सिद्धांत हमें आज तक समझ में नहीं आया। स्वयं मंत्र जाप करना आप के स्वयं के लिये उत्तम हो सकता है। क्योंकि अलग-अलग मंत्रों के अलग-अलग उच्चारण हमारे शरीर में स्थित अलग-अलग नाड़ियों पर अपना प्रभाव डालते हैं। स्वयं मंत्र जाप करने से शरीर में उष्मा बढ़ती है, जिससे मानव शरीर में स्थित गुप्त शक्तियों को जाग्रत होने का अवसर मिलता है। कई विशेषज्ञ ये परामर्श देते हैं कि गृह का मुख्य दरवाजा स्वामी की राशि व नक्षत्र के अनुसार बनाया जाए। ऐसे अनुभवहीन लोग वास्तु विषय के पति अपनी अज्ञानता से जनसामान्य को भ्रमित कर रहे हैं। क्योंकि राशि व नक्षत्र के अनुसार बनाया गया मुख्य द्वार अगर वास्तु की दृष्टि से गलत होगा, तो इससे उत्पन्न होने वाले दुष्परिणामों के बारे में नहीं सोचते हैं। उदाहरणत: गृह-स्वामी को उसके राशि व नक्षत्र के अनुसार मुख्य द्वार बनाने के लिये बताया जाता है। लेकिन यह सिद्धांत निश्चय ही तर्कहीन है। क्योंकि गृह-मालिक की मृत्यु के उपरान्त, उनके पुत्रों के लिये वह मुख्य द्वार निवास योग्य रहेगा क्या? तब उनके पुत्रों के लिये उस मुख्य द्वार को तोड़ कर, उनकी राशि व नक्षत्र के अनुसार दिशा में द्वार बनवाना पड़ेगा, क्योंकि पुत्रों की राशि व नक्षत्र भिन्न होगी। राशि व नक्षत्र के अनुसार मुख्य द्वार बना हो, जो वास्तु के सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है तो निश्चय ही उस गृह में रहने वालों के लिये कई समस्याएँ खड़ी हो जायेंगी। वास्तुदोष के कारण उत्पन्न होने वाली परेशानियों की शिकायत जब की जाती है, तब संबंधित व्यक्ति आसान-सा उत्तर देकर टकरा देते हैं और स्वयं को बचा लेते हैं कि अभी तुम्हारी ग्रह दशा खराब है या भाग्य साथ नहीं दे रहा है। हम यह पूछते हैं कि जब भाग्य ही सब कुछ है तो वास्तुविषय को क्यों अपनाते हैं। इस तरह के अंधविश्वास और ग्रह-दशाओं की विपरीत परिस्थिति से डराकर, इसके लिये पूजा-पाठ-यंत्र इत्यादि के लिये सलाह देकर, यह सब करने के लिये पेरित करते हैं। इससे समस्याओं का समाधान तो नहीं मिल सकता, लेकिन समस्याग्रस्त व्यक्ति की आर्थिक एवं मानसिक परेशानियाँ अवश्य बढ़ जाती है। पुस्तकों में भूमि परीक्षण करने के लिये लिखा रहता है कि पहले भूमि में गड्डा खोदो और उसमें पानी या मिट्टी भरो। पानी या मिट्टी के कम और ज्यादा रहने के आधार पर भूमि का परीक्षण करवाते हैं। लेकिन इससे मात्र इतना निर्णय होता है कि भूमि सख्त (ठोस) है या नरम। प्राचीन काल में गृह मात्र नींव व दीवारों पर बनते थे। अत भूमि का नरम या सख्त आधार देखना ही एकमात्र कारण हो सकता है। आजकल भूमि में गहरे पिल्लर खड़े करके मकान का निर्माण किया जाता है। अत: पुस्तकों में लिखी गयी बातों के आधार पर भूमि परीक्षण के नाम पर लोगों को बहकाना मूर्खता है। आपसे अपनी बात वास्तु विषय में दिशाओं एवं पंच-तत्त्वों की अत्यधिक उपयोगिता है। ये तत्त्व जल-अग्नि-वायु-पृथ्वी-आकाश है। भवन निर्माण में इन तत्त्वों का उचित अनुपात ही, उसमें निवास करने वालों का जीवन प्रसन्न एवं समृद्धिदायक बनाता है। भवन का निर्माण वास्तु के सिद्धांतों के अनुरूप करने पर, उस स्थल पर निवास करने वालों को प्राकृतिक एवं चुम्बकीय ऊर्जा शक्ति एवं सूर्य की शुभ एवं स्वास्थ्यपद रश्मियों का शुभ प्रभाव पाप्त होता है। यह शुभ एवं सकारात्मक प्रभाव, वहाँ पर निवास करने वालों के सोच-विचार तथा कार्यशैली को विकासवादी बनाने में सहायक होता है, जिससे मनुष्य की जीवनशैली स्वस्थ एवं प्रसन्नचित रहती है और बौद्धिक संतुलन भी बना रहता है। ताकि हम अपने जीवन में उचित निर्णय लेकर सुख-समृद्धिदायक एवं उन्नतिशील जीवन व्यतीत कर सकें। इसके विपरीत यदि भवन का निर्माण का कार्य वास्तु के सिद्धांतों के विपरीत करने पर, उस स्थान पर निवास एवं कार्य करने वाले व्यक्तियों के विचार तथा कार्यशैली निश्चित ही दुष्प्रभावी होंगी और मानसिक अशांति एवं परेशानियाँ बढ़ जायेंगी। इन पांच तत्त्वों के उचित संतुलन के अभाव में शारीरिक स्वास्थ्य तथा बुद्धि भी विचलित हो जाती है। इन तत्वों का उचित संतुलन ही, गृह में निवास करने वाले पाणियों को मानसिक तनाव से मुक्त करता है। ताकि वह उचित-अनुचित का विचार करके, सही निर्णय लेकर, उन्नतिशील एवं आनंददायक जीवन व्यतीत कर सकें। ब्रह्माण्ड में विद्यमान अनेक ग्रहों में से जीवन पृथ्वी पर ही है। क्योंकि पृथ्वी पर इन पंच-तत्त्वों का संतुलन निरंतर बना रहता है। हमें सुख और दुःख देने वाला कोई नहीं है। हम अपने अविवेकशील आचरण और प्रकृति के नियमों के विरुद्ध आहार-विहार करने से समस्याग्रस्त रहते हैं। पंच-तत्त्वों के संतुलन के विपरीत अपना जीवन निर्वाह करने से ही हमें दुःख और कष्ट भोगने पड़ते हैं। संसार की समस्त ऊर्जा शक्तियों को प्रदान करने वाला सूर्य ही है। अत: जितना अधिकाधिक संभव हो सके, मनुष्य को सूर्य की किरणों से प्राप्त होने वाली ऊर्जा शक्ति एवं रश्मियों को ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि इसमें प्राण शक्ति होती है। जिस भवन में सूर्य की किरणें एवं शुद्ध वायु का स्वच्छंद प्रवेश नहीं होगा तो उस भवन में रहने वालों का जीवन अस्वस्थ ही रहेगा। उत्तर की तरफ मुँह करके भोजन करने पर चुम्बकीय प्रवाह, नसों द्वारा अधिक वेग से पवाहित होता है। इसी वजह से उत्तरमुखी रहकर भोजन करना इतना वायुवर्धक नहीं है, जितना पूर्व की ओर मुंह करके भोजन करना स्वास्थ्यदायक होता है, क्योंकि सूर्य ऊर्जा शक्ति का मुख्य स्त्रोत है। वास्तु विषय में भी भवन तथा मानव शरीर में सूर्य किरणों की ऊर्जा के संचार करने पर विशेष बल दिया गया है। धार्मिक शास्त्रानुसार, सूर्य उपासना में सूर्य को अर्ध्य (जल) देने से आशय यही है कि प्रातकाल: मानव शरीर सूर्य-रश्मियाँ ग्रहण कर सके। रसोई घर के सही दिशा में नहीं होने के कारण पूरे परिवार में पाचन संबंधित समस्याएं एवं रोग उत्पन्न है। इसीलिए आग्नेय में रसोई घर बनाने की महत्ता है। इसके साथ ही दक्षिण-आग्नेय में एक दरवाजा या खिड़की अवश्य ही लगानी चाहिये। पूर्व-आग्नेय दिशा में सूर्य की इंफारेड किरणें गिरती हैं, जो आग्नेय दिशा में पकने वाले खाने में पनपने वाले विषाणुओं को समाप्त कर देती है और दक्षिण-आग्नेय के दरवाजे या खिड़की से आने वाली ठंडी हवा, इन तप्त रश्मियों को रसोई घर से बाहर निकाल देती है। इसके विपरीत पूर्व-उत्तर में रसोई घर बनाने में अनावश्यक धन का अपव्यय, परिवार के सदस्यों में आपसी मतभेद एवं मानसिक अशांति मिलती है। गृह में ईशान दिशा का कट जाना वंश वृद्धि में बाधक एवं जीवन को अत्यंत कष्टप्रद बनाता है। उचित स्थान पर शयन कक्ष बनाने से वैवाहिक जीवन आनंदित रहे और आदर्श संतान सुख की प्राप्ति हो सके। शयन कक्ष में पलंग के ऊपर से बीम गुजर रहा हो तो, उस पलंग पर सोने वालों को रोग, अनिद्रा व तनाव की सम्भावनाएं बढ़ जाती है। भवन के चारों तरफ पूर्व एवं उत्तर में अधिक तथा दक्षिण एवं पश्चिम में अपेक्षाकृत कम खुली जगह रखनी चाहिये। पूर्व-उत्तर में ढलान तथा हल्का और दक्षिण-पश्चिम भाग ऊँचा और भारी होना चाहिये। अधिकांश दरवाजे तथा खिड़कियाँ दक्षिण-पश्चिम की अपेक्षा, पूर्व-उत्तर में ज्यादा रखने चाहिएं, जिससे गृह में शुभ एवं सकारात्मक ऊर्जा शक्तियों का निर्विघ्न प्रवेश हो सके और इन ऊर्जा शक्तियों की भवन से निकासी न होने पाये। कुछ का यह सोचना है कि भवन में वास्तु के सिद्धांतों का पालन करने के बावजूद भी जीवन समस्याग्रस्त रहता है। निश्चित ही यह दोष वास्तु विषय का नहीं माना जा सकता है बल्कि बिना अनुभव के अज्ञानियों के परामर्श का ही नतीजा होता है। व्यक्ति का ज्ञान अधूरा हो सकता है, वास्तु विज्ञान सनातन सत्य है। कुशल एवं अनुभवी वास्तु विशेषज्ञ के परामर्श के अनुसार वास्तु के सिद्धांतों का पालन करते हुए भवन का निर्माण कार्य किया जाये तो, वहाँ पर रहने वालों का जीवन निरंतर खुशहाल, समृद्धिदायक और उन्नतिशील बना रहता है। वास्तु की दिशाएँ और तत्त्वों में उचित अनुपात आते ही ग्रह दशा भी स्वत: सुधरने लगती है। वास्तु के सिद्धांतों का अनुपालन करते हुए, यदि गृह का निर्माण एवं सामान रखने की व्यवस्था में आवश्यक परिवर्तन किया जाए तो निश्चय ही गृह स्वामी एवं उसमें रहने वालों के लिये समृद्धिदायक एवं मंगलमय सिद्ध होगा।
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